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मानवता की ओर

अमेरिका में पिछले कुछ दिनों से ब्लैक लाइव्स मैटर के नाम से एक ज़ोरदार आंदोलन चल रहा है जिसने ना कि पूरे अमेरिका बल्कि हर उस देश में एक आंदोलन खड़ा कर दिया है जहां श्वेत जनसंख्या बहुलता में है। इस आंदोलन ने एक नए नारे को जन्म दिया है (all lives matter)।

हालांकि इसका बहुत प्रखरता से विरोध भी हुआ है। ये आंदोलन हमें ये दर्शाता है कि अब जनता ना ही केवल अपने अधिकार के बारे में सजग हो रही है बल्कि वो अब मानवता के लिए भी बहुत प्रमुखता से प्रबल हो रही है।

Pregnant Elephant
Pregnant Elephant

हिन्दुस्तान में भी पिछले दिनों एक बहुत ही क्रूरता से भरपूर घटना सामने आई है, जिसमें पता चला है कि एक हथिनी जो की गर्भवती थी, एक फल खाने से (जिसमें पटाखे रखे थे) उसकी मौत हो गई। इस खबर के बाहर आने के बाद पूरे देश में आक्रोश का माहौल उत्पन्न हो गया। अलग अलग हस्तियों के बयान आने लगे और लोगों में गुस्से का उबाल आ गया। इस आक्रोश के प्रबल होने का कारण उस हथिनी का गर्भवती होना था।

इसपर केरल सरकार ने तुरंत जांच के आदेश दिए और दोषियों पर कड़ी से कड़ी कार्यवाही करने का आश्वासन दिया। इसी के साथ भारत सरकार ने भी राज्य सरकार से पूरी जांच रिपोर्ट मांगी है। केरल पुलिस ने इस सम्बन्ध में विल्सन नाम के एक व्यक्ति को गिरफ्तार किया है, लेकिन इसके विपरीत इसे साम्प्रयादिक रंग देने के लिए इलैक्ट्रानिक चैनल न्यूज नेशन के दीपक चौरसिया ने दो मुस्लिम लोगों की गिरफ्तारी ही नहीं दिखाई अपितु उनके फर्जी नाम तक ट्वीट कर दिये।

Safoora Zargar
Safoora Zargar

इसी के दूसरी तरफ 27 वर्षीय छात्र नेता एवं सामाजिक कार्यकर्ता सफूरा जरगर हैं। सफुरा जरगर, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में एम0फिल0 की स्टूडेन्ट और जामिया कोआर्डिनेशन कमेटी की मीडिया कोऑर्डिनेटर भी हैं। सफुरा जरगर तब खबर में आईं, जब उसपर दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने यह आरोप लगाया कि 13 अप्रैल को दिल्ली में हुए दंगे में उसका हाथ है।

यह दलील देकर कि सफूरा जरगर ने 22-23 फरवरी को नागरिकता संसोधन कानून (CAA) के विरोध में एक सभा का आयोजन किया तथा जाफराबाद मेट्रो स्टेशन के नीचे महिलाओं को जुटाया और इसी आरोप को लगाते हुए दिल्ली पुलिस ने गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम यानी UAPA के तहत कार्रवाई करते हुए लगभग दो महीने पहले सफूरा जरगर को दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने गिरफ्तार कर लिया। दो दिन पूर्व दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने गुरूवार को सफूरा जरगर को जमानत देने से तीसरी बार इंकार कर दिया।

इस घटना ने समाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक आक्रोश भर दिया है, परन्तु इस आक्रोश का सामाजिक कार्यकर्ताओं और कुछ लोगों तक सिमट कर रह जाना बहुत ही दुखदाई संदेश पहुंचाता है। सफूरा के गिरफ्तार होने के बाद टि्वटर पर हिंदूवादी संघों और लोगों द्वारा निरंतर उसके चरित्र को लेकर अभद्रता फैलाई जाती रही। जिसने उन सभी हिन्दुस्तानियों को बेनकाब कर दिया जो आज अपने सोशल मीडिया पर lives matter आंदोलन का बहुत प्रमुखता से समर्थन कर रहे हैं। सभ्य समाज का सामाजिक प्राणी होने के नाते ये हमारे लिए अत्यंत ही चिंता का विषय है।

इस तरह की चयनात्मक सहानुभूति हमारे देश के आंतरिक बंटवारे को दर्शाती है, जिसे देश, धर्म के नाम पर हिस्सों में बांटने का षड़यंत्र रचा जा रहा है। लोगों की इस तरह के चयनात्मक सहानुभूति के पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, लेकिन इसी के साथ यह हमारे देश के सिस्टम पर कुछ बेहद गंभीर सवाल खड़े भी खड़े करते हैं। 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से एक बार फिर हिंदूवादी ताकतों का उदभव हुआ है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से धर्म के नाम पर होने वाली घटनाओं में निरंतर वृद्धि देखी गई है। इस कुरीति को फैलाने में हमारे नेताओं का बहुत बड़ा योगदान है। 2019 के चुनाव के बाद संसद के पहले दिन जब 4 बार के सांसद रहे ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी के शपथ ग्रहण कर रहे थे तो संसद में जय श्री राम के नारे लगे थे, तो किसी ने उसके दूरगामी दुष्परिणाम के बारे में नहीं सोचा था।

न्यूटन के तीसरे सिद्धांत (हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है) जो दुनिया की हर वस्तु पर लागू होती है। उसका यहां भी लागू होना लाजमी था। परिणाम है, राम के नाम पर बढ़ते मौब लिंचिंग के मामले। उस एक क्रिया ने हिंदूवादी ताकतों को एक अनौखी अनदेखी छूट दे दी। सरकार की इसपर चुप्पी भी एक बहुत बड़ा कारक रही है।

राजनेता अक्सर चुनाव जीतने के चक्कर में अपने दिए गए भाषणों का समाज पर होने वाले असर को अनदेखा कर देते हैं और विगत 6 वर्षों में तो यह परंपरा चरम पर रही है। विडम्बना की बात तो यह है कि इन पर अंकुश लगाने वाली संस्थाओं ने एक भयानक चुप्पी साध रखी है। दिल्ली के दंगों से पहले दिए गए अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा के भाषण इसका पुख्ता उदाहरण हैं। यहां तक कि फेसबुक के कर्ताधर्ता मार्क जुकरबर्ग तक ने यह कह दिया कि दिल्ली के दंगों के लिए कपिल मिश्रा के नफरती भाषण ही जिम्मेदार र्हैं।

ये सारी क्रियायें हमारी मानवता/इंसानियत की सोच पर एक गंभीर प्रभाव डालती हैं। शायद यही कारण है कि हम एक गर्भवती हथिनी की मृत्यु पर भी उसके दोषियों का धर्म ही नहीं तलाशते हैं अपितू नेशनल लेवल चैनल, न्यूज नेशन के दीपक चौरसिया ने तो दो मुस्लिम लोगों के नाम भी जारी कर दिये कि इनको पुलिस ने पकड़ा है। जबकि पुलिस द्वारा पकड़े गये व्यक्ति का नाम विल्सन है।

इसी के विपरीत एक गर्भवती महिला के मुसलमान होने के कारण उसे आंतरिक और बाह्य दोनों यातनाएं झेलनी पड़ रही हैं। ये हमारी धर्म के प्रति कट्टरपंथी सोच का नतीजा ही है जिसने हमारी संवेदनाओं को भी चयनात्मक (सलेक्टिव) बना दिया है। अब किसी के प्रति हमारी संवेदनाओं का रुख किसी की पीड़ा नहीं बल्कि उसका धर्म तय करता है। ऐसी सोच का आने वाली पीढ़ी पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ने वाला है।

इन सभी कुरीतियों से उबरने का एक ही जरिया है, हमारा वैज्ञानिक तरीकों पर ध्यान देना तथा उनका दैनिक जीवन में पालन करना। सरकार की भूमिका वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना है यह हमारे संविधान में भी लिखा है। शायद तभी हम एक सच्चे मानवतावादी इंसान बन पायें जिसकी इस समाज और दुनिया को नितांत आवश्यकता है।

Zeeshan Ayyub Tweet
Zeeshan Ayyub Tweet

बॉलीवुड एक्टर जीशान अयूब ने अपने ट्वीटर हैण्डिल पर ट्वीट किया है कि सफूरा जरगर की गलती सिर्फ इतनी थी की उसने इस सरकार की जबरदस्ती के खिलाफ आवाज उठाई। बार-बार बेल ग्रान्ट ना करना दिखाता है कि ये सब मिलकर देश को अंधकार में धकेलना चाहते हैं। सफूरा जरगर के पेट में जो बच्चा/बच्ची है वो देश का भविष्य है, जिसे कैद कर लिया गया है।

इस घटना ने समाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक आक्रोश भर दिया, परन्तु इस आक्रोश का सामाजिक कार्यकर्ताओं और कुछ लोगों तक सिमट कर रह जाना एक बहुत ही दुखदाई संदेश पहुंचाता है। सफूरा के गिरफ्तार होने के बाद टि्वटर पर हिंदूवादी संघों और लोगों द्वारा निरंतर उनके चरित्र को लेकर अभद्रता फैलाई जाती रही जिसने उन सभी हिन्दुस्तानियों को बेनकाब कर दिया जो आज अपने सोशल मीडिया पर lives matter आंदोलन का बहुत प्रमुखता से समर्थन कर रहे हैं। सभ्य समाज का सामाजिक प्राणी होने के नाते ये हमारे लिए अत्यंत ही चिंता का विषय है।

इस तरह की चयनात्मक सहानुभूति हमारे देश के आंतरिक बंटवारे को दर्शाती है, जिसे देश धर्म के नाम पर हिस्सों में बांटने का षड़यंत्र रचा जा रहा है। लोगों की इस तरह के चयनात्मक सहानुभूति के पीछे बहुत से कारण हो सकते हैं, लेकिन इसी के साथ यह हमारे देश के सिस्टम पर कुछ बेहद गंभीर सवाल खड़े भी खड़े करते हैं। 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद से एक बार फिर हिंदूवादी ताकतों का उदभव हुआ है।

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से धर्म के नाम पर होने वाली घटनाओं में निरंतर वृद्धि देखी गई है। इस कुरीति को फैलने में हमारे नेताओं का बहुत बड़ा योगदान है। 2019 के चुनाव के बाद संसद के पहले दिन जब 4 बार के संसद रह चुके ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के नेता असदुद्दीन ओवैसी के शपथ ग्रहण पर संसद में जय श्री राम के नारे लगे थे, तो किसी ने उसके दूरगामी दुष्परिणाम के बारे में नहीं सोचा होगा।

न्यूटन के तीसरे सिद्धांत (हर क्रिया की बराबर और विपरीत प्रतिक्रिया होती है) जो दुनिया की हर वस्तु पर लागू होती है। उसका यहां भी लागू होना लाजमी था। परिणाम है, राम के नाम पर बढ़ते मौब लिंचिंग के मामले। उस एक क्रिया ने हिंदूवादी ताकतों को एक अनौखी अनदेखी छूट दे दी। सरकार की इसपर चुप्पी भी एक बहुत बड़ा कारक रही है। राजनेता अक्सर चुनाव जीतने के चक्कर में अपने दिए गए भाषणों का समाज पर होने वाले असर को अनदेखा कर देते हैं और विगत 6 वर्षों में तो यह परंपरा चरम पर रही है।

विडम्बना की बात तो यह है कि इन पर अंकुश लगाने वाली संस्थाओं ने एक भयानक चुप्पी साध रखी है। दिल्ली के दंगों से पहले दिए गए अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा के भाषण इसका पुख्ता उदाहरण हैं। यहां तक कि फेसबुक के कर्ताधर्ता मार्क जुकरबर्ग तक ने यह कह दिया कि दिल्ली के दंगों के लिए कपिल मिश्रा के नफरती भाषण ही जिम्मेदार र्हैं।

ये सारी क्रियायें हमारी मानवता/इंसानियत की सोच पर एक गंभीर प्रभाव डालती हैं। शायद यही कारण है कि हम एक गर्भवती हथिनी की मृत्यु पर भी उसके दोषियों का धर्म ही नहीं तलाशते हैं अपितू नेशनल लेवल के चैनल के दीपक चौरसिया ने तो दो मुस्लिम लोगों के नाम भी जारी कर दिये कि इनको पुलिस ने पकड़ा है। जबकि पुलिस द्वारा पकड़े गये व्यक्ति का नाम विल्सन है। इसी के विपरीत एक गर्भवती महिला के मुसलमान होने के कारण उसे आंतरिक और बाह्य दोनों यातनाएं झेलनी पड़ रही हैं।

ये हमारी धर्म के प्रति कट्टरपंथी सोच का नतीजा ही है जिसने हमारी संवेदनाओं को भी चयनात्मक (सलेक्टिव) बना दिया है। अब किसी के प्रति हमारी संवेदनाओं का रुख किसी की पीड़ा नहीं बल्कि उसका धर्म तय करता है। ऐसी सोच का आने वाली पीढ़ी पर बहुत ही नकारात्मक प्रभाव पड़ने वाला है। इन सभी कुरीतियों से उबरने का एक ही जरिया है, हमारा वैज्ञानिक तरीकों पर ध्यान देना तथा उनका दैनिक जीवन में पालन करना। सरकार की भूमिका वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा देना है यह हमारे संविधान में भी लिखा है। शायद तभी हम एक सच्चे मानवतावादी इंसान बन पायें जिसकी इस समाज और दुनिया को नितांत आवश्यकता है।

बॉलीवुड एक्टर जीशान अयूब ने अपने ट्वीटर हैण्डिल पर ट्वीट किया है कि सफूरा जरगर की गलती सिर्फ इतनी थी की उसने इस सरकार की जबरदस्ती के खिलाफ आवाज उठाई। बार-बार बेल ग्रान्ट ना करना दिखाता है कि ये सब मिलकर देश को अंधकार में धकेलना चाहते हैं। सफूरा जरगर के पेट में जो बच्चा/बच्ची है वो देश का भविष्य है, जिसे कैद कर लिया गया है।

इस घटना ने समाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक आक्रोश भर दिया, परन्तु इस आक्रोश का सामाजिक कार्यकर्ताओं और कुछ लोगों तक सिमट कर रह जाना एक बहुत ही दुखदाई संदेश पहुंचाता है। सफूरा के गिरफ्तार होने के बाद टि्वटर पर हिंदूवादी संघों और लोगों द्वारा निरंतर उनके चरित्र को लेकर अभद्रता फैलाई जाती रही जिसने उन सभी हिन्दुस्तानियों को बेनकाब कर दिया जो आज अपने सोशल मीडिया पर lives matter आंदोलन का बहुत प्रमुखता से समर्थन कर रहे हैं। सभ्य समाज का सामाजिक प्राणी होने के नाते ये हमारे लिए अत्यंत ही चिंता का विषय है।

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