स्वामी विवेकानन्द, पार्ट—1/3
संध्या समय विश्वनाथ घर लौटे तो उनका शरीर थका हुआ और मन बोझिल था।
“आज बहुत थक गए हो।” भुवनेश्वरी ने कहा, “उठो मुंह हाथ धोकर कुछ खा पी लो।”
विश्वनाथ मंद स्वर में बोले, “काकी ने वकील के माध्यम से नोटिस भिजवाया है।”
“क्या?
“हम बिना किसी अधिकार के उनके पति के घर में रह रहे हैं।”
“उनके पति के घर में ?”
“वे कहती हैं कि यह भवन उनके पति का है; और हम बलपूर्वक इस पर अधिकार जमाए बैठे हैं। वे असहाय विधवा हैं, इसलिए हम से लड़ नहीं सकतीं। …यदि यह भवन हमने खाली नहीं किया तो वे अदालत से प्रार्थना करेंगी कि भवन खाली कराकर, पूरी तरह से उन्हें सौंपा जाए।”
“तो फिर क्या सोचा है तुमने? काकी के विरुद्ध मुकदमा लड़ोगे?“
“तो क्या यह मिथ्या आरोप चुपचाप स्वीकार कर लूं ?” विश्वनाथ बोले।
नहीं असत्य से समझौता तो कभी नहीं;…. भुवनेश्वरी सहमत हो गई, “किंतु इस घर में हमारा जीवन विषाक्त हो जाएगा। ऐसा तो काकी का स्वभाव नहीं है कि कचहरी में मुकदमा लड़ें और घर में हम से स्नेह बनाए रखें।”
“यह तो शायद काली काका के जीवन में भी संभव नहीं होता। पर…. इस आरोप के रहते मैं इस भवन में नहीं रहूंगा। ……अब तो अदालत से वैध अधिकार प्राप्त करके ही यहां बसूंगा।” विश्वनाथ कुछ आवेश में बोले, “अपने पिता का एकमात्र अधिकारी होने के कारण, यह भवन मेरा है।
“सारा का सारा मेरा है।”
“इस भवन को छोड़ दोगे ?”
“न्यायालय से न्याय मिलने तक।”
तो हम रहेंगे का कहां?
“कहीं कोई स्थान किराए पर ले लेंगे।”
“किराए पर ?”
“हां। क्यों ?“
“अपना घर रहते हुए ?”
“अपना घर अब है कहां ?”