Opposition को तलाश है एक ईमानदार नेता की
Opposition को 2019 के लिए नेता की तलाश
ओल्ड इंडिया के Opposition को एक जोरदार नेता की तलाश है। ओल्ड इण्डिया इसलिये लिखना पड़ रहा है कि नयू इण्डिया तो मोदी जी के हो गया। Opposition को नेता की तलाश नहीं है तो होनी चाहिये। क्योंकि स्व. इंदिरा गांधी की सहानुभूति लहर में जब Opposition का सफाया हो गया था।
भारतीय जनता पार्टी को मात्र 2 सीटें प्राप्त हुई थीं। तब भी Opposition इतना हताश नहीं हुआ था जितना आज है। तब विपक्ष परास्त हुआ था लेकिन आज जैसा हताश नहीं था। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी को परास्त करने के लिए आज हताश विपक्ष भले ही एकजुट हो। मगर उसके पास नेतृत्व की बहुत बड़ी कमी है।
कमी इतनी है कि मोदी के सामने उतारने के लिए उसके पास ईमानदार और साहसी नेता नहीं है। विपक्ष बहुत ही उतावलेपन से नेतृत्व की तलाश में है। जून 2017 तक देश की परिस्थितियां वो नहीं थीं जो आज हैं। उनमें बहुत तब्दीली आ चुकी है। जो परिस्थितियां भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में दिखाई दे रहीं थीं वे अब विपक्ष के साथ हैं।
लेकिन आज का बेदम विपक्ष इसका फायदा उठा पायेगा संदेह है।
देश के 18 राज्यों में राजग की सरकार है। देश के उन राज्यों में जहां भारतीय जनता पार्टी का कोई नाम लेवा नहीं था वहां भी आज इसी पार्टी का राज है। ख़ासकर दक्षिण भारत और नार्थ ईस्ट में। कुल जमा हालात ये हैं कि आज भारतीय जनता पार्टी ने अपने आप को देश का उत्तराधिकारी समझ लिया है। जिस हालत में Opposition है उससे तो आगामी सालों में भी भाजपा को वह दरकिनार कर पायेगा मुश्किल है।
देश में सत्तर के दशक में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल लगाने के बाद जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में विपक्ष को एकजुट होना पड़ा था। उस समय सभी दल इंदिरा गांधी के खिलाफ थे। जयप्रकाश नारायण, राजनेता नहीं थे, वे एक विचारधारा थे। मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्र शेखर जैसे दिग्गजों के साथ मार्क्सवादी, सोशलिस्ट, जनसंघ सहित अनेक दल उनके साथ चले। और 1977 में कांग्रेस का साम्राज्य लड़खड़ाकर गिर गया।
वर्तमान में विपक्ष के पास विशेष तौरपर कांग्रेस या किसी भी अन्य दल के पास कोई नेतृत्व नहीं है।
जिसकी अगुवाई में बाकी राजनेता या दल एकत्र हो सकें। भाजपा और संघ परिवार पर वार करने लिए कोई धारदार हथियार की जरूरत ही नहीं हैं। एक साहसी और करेक्टर वाले राजनीतिज्ञ की जरूरत हैं। जो केवल 01 जुलाई 2017 से लागू की गई जीएसटी को ही मुद्दा बना ले तो बहुत बड़ी जीत हासिल कर सकता है।
ऐसा मेरा दावा है।
इस समय तो Opposition के सामने अपने अस्तित्व का भी खतरा है।
मंथन करने की बात ये भी है की आखिरकार Opposition में ऐसा कौन है जो इतना सक्षम या समर्थ है, जो बाकी नेताओं को एकजुट कर सके। अब तो जेपीनारायण जैसा नेता मिलना भी मुश्किल है। हिन्दी राज्यों से शुरुआत करें तो उत्तर प्रदेश में हालिया विधानसभा चुनाव से पहले युवा नेतृत्व के नाम पर अखिलेश यादव में विपक्ष को लीड करने की सोची गयी थी। कांग्रेस से गठजोड़ कर ये जताया भी गया कि अब युवाओं का दौर आ गया है।
इसी संभावना पर राहुल और अखिलेश साथ भी आये। मगर बिहार की तरह यहाँ भाजपा को हराया नहीं जा सका। और अखिलेश दरकिनार हो गए। अखिलेश के पास ना तो विज़न है, ना ही नेतृत्व क्षमता। वो तो पिता मुलायम सिंह यादव द्वारा गद्दी पर बैठा दिये गये थे। वरना तो उनके पास लोगों को मुर्ख बनाने के अलावा कोई हुनर नहीं है।
मायावती सबको स्वीकार नही। और उत्तर प्रदेश से बाहर उनका कोई अस्तित्व नहीं। बिहार में नितीश कुमार के भाजपा से हाथ मिला लेने के बाद नीतीश के नेतृत्व की सम्भावना धाराशाई हो गयी। लालू प्रसाद खुद आरोपों से घिरे हैं। वे देश के पहले ऐसे राजनेता होंगे जिन्हें अदालत ने चुनाव लड़ने से रोका है। दागी नेता के नाम पर और अपने राज्य से बाहर न निकल पाना उन्हें भी इस दौड़ से बाहर कर देता है। उनके युवा बेटे तेजस्वी का आभा मंडल ही नहीं है कि कमान उनको दी जा सके। उडीसा में नवीन पटनायक तटस्थ रहे हैं।
कम्युनिस्टों में सीताराम येचुरी को खुद उनकी पार्टी ने तीसरी बार राज्य सभा नहीं भेजा। सोमनाथ चटर्जी अब राजनीति से ही बाहर हैं। ममता बनर्जी अपने बंगाल से बाहर नहीं आ पा रहीं। सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी कांग्रेस खुद नेतृत्व विहीन दिखाई देता है, क्योंकि राजकुमार जी के पास बागडोर तो है पर नेतृत्व की क्षमता नहीं है। जो नेता बचे हैं वो सोनिया गाँधी की छाया से बाहर नहीं आ रहे या लाये नहीं जा रहे।
राहुल गांधी अपने आप को पार्टी का ही उत्तराधिकारी नहीं बना पाए। विपक्षी नेताओं के सामने वे आज भी नौसिखिए ही माने जाते हैं।