मैं आपके बाप का नौकर तो नहीं-वरूण गांधी
“मैं आपके बाप का नौकर तो नहीं कि आप रात में 9:30 बजे मुझे फोन कर रहे हैं।”
इस मीठी वाणी के मालिक हैं, सांसद वरुण गांधी, सांसद मेनका गांधी के महान सुपुत्र।
ऑडियो वायरल है,
कोई आदमी कॉल करता है, किसी काम से तो सांसद वरूण गांधी ने जवाब दिया कुछ इस स्टाइल में। टीवी वाले बता रहे हैं कि आम आदमी से केसे बात करते हैं, सांसद कहलाये जाने वाले जन प्रतिनिधि। ये जनप्रतिनिधि कहां हुए, ये तो जमींदार बन बैठे हैं। जनप्रतिनिधि शब्द का ये गलत इस्तेमाल कर रहे हैं। इसे बदलकर इसकी जगह नाम हो जाना चाहिए “वोटर के अन्नदाता”
खैर, वरुण गांधी कोई नई बात नहीं बोले, वो वही बोले जो हर नेता बोलता है, सोचता है, करता है, बस इस बार हम सुन पा रहे हैं, पर जानते तो हम हमेशा से हैं,जनता की औकात इनकी निगाहों में। और नेता ही क्यूं? सरकारी अधिकारियों का भी कमोबेश यही रवैय्या है। लेकिन इसके जिम्मेदार भी हम और आप ही हैं।
इन नौकरों को हम पैसे देते हैं, पालते हैं। हमारे पैसों पर ये ऐश करने वाले हमें ही आंखें दिखाते हैं, क्यूं की हम में से ही कई लोग इनके साथ मिल कर हमारे पैसों की लूट में सराबोर हैं, गलत काम करवाने में इनकी मदद लेने इनके पास पहुंचते हैं। और इसीलिए ये हम सबको एक ही लाठी से हांकते हैं। हमें अपने बीच के ऐसे चोरों को भी बहिष्कृत करना चाहिए।
कोई वजह नहीं है कि हम किसी विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री के आगे नतमस्तक हों। नतमस्तक अगर कोई होगा तो वो, हम नहीं। ये हो गया ज्ञान, अब करते हैं, मुद्दे कि बात, उसके बाद मन की बात। और मुद्दा है कि, क्या ये सांसद, विधायक, मंत्री, संतरी हमारे बाप के नौकर हैं या नहीं?
एक सांसद को पालने पर हम हर साल लाखों रुपए खर्च करते हैं। 50 हजार रूपए बतौर वेतन पाने वाले सांसद की हर शान-ओ शौकत सिर्फ हमारे पैसे के बूते पर ही होती है। इनके कलफ लगे सफेद झकाझक कुर्तो को देख कर कॉम्प्लेक्स में ना आया करो दोस्तों, हम देते हैं 25 हजार रूपए महीने इन्हे धुलवाने और इस कलफ को लगवाने के। ये जब संसद जाते हैं और बिना काम किए सिर्फ उधम मचा के वापिस निकल आते हैं उसके भी 2 हजार रूपए रोज हम इन्हें देते हैं।
अपने दफ्तरों में काली कुर्सी पर सफेद तौलिया बिछा कर जो ये अपने शाही अंदाज हमें दिखाते हैं। वो शाही अदाएं हमारे ही पैसे से आई होती हैं। 75हजार रूपए तो हम उस कुर्सी टेबल को खरीदने के लिए देते हैं इन्हें। 45 हजार रूपए प्रति माह हम इन्हें दफ्तर चलाने के लिए देते हैं। और तो और, जिस फोन पर वरुण जी जैसे सांसद हम लोगों को बताते हैं कि वो हमारे बाप के नौकर नहीं हैं, वो और उसके अलावा दो और फोन हम इन्हें देते हैं। जिससे कि ये हमें सुनें। 1.5 लाख मुफ्त कॉल और मुफ्त 3/4-जी डाटा हम देते हैं अपने इन नौकरों को।
क्षेत्र के जिस दल-बल को लेकर ये घूम कर ये खुद को हमसे अलग उंचा और खुदा बनते हैं, उसके लिए 45 हजार रूपए हम ही देते हैं इन्हें। पूरी सांसदी के दौरान इन्हें मुफ्त का बंगला हम देते हैं। इनको पानी फ़्री हम देते हैं। इनको 50 हजार यूनिट बिजली सालाना मुफ्त हम देते हैं। इनको मुफ्त इलाज हम देते हैं। 2 लाख रुपए हम इन्हें कंप्यूटर प्रिंटर आदि के लिए देते हैं। और तो और संसद में उच्च गुणवत्ता का खाना भी हम इन्हें तकरीबन मुफ्त में खिलाते हैं, 30 रुपए प्लेट के हिसाब से।
अब कोई मुझे ये बताए कि इस देश में कितने लोग ऐसी नौकरी कर रहे हैं, जिन्हें इतना कुछ उस नौकरी में मिल रहा हो? क्या इस सब के बाद इन्हें ये हमसे पूछना बनता है कि ये हमारे नोकर हैं या हम इनके नौकर हैं?
# आमजन के मन की बात-
इस बकवास की वास्तविकता को समझें। सोचने वाली बात, मुझे नहीं लगता कि फोन करने वाला इतना आम भी रहा होगा कि सांसद का मोबाइल नं0 पा जाये और उन्हें मोबाइल मिला ले। क्यू की सांसद जी का निजी मोबाइल नंबर (जो रात में सांसद जी खुद उठा रहे हैं) कितने आम लोगों के पास होता है। ये पढ़ने वाले अपने मोबाइल में देख कर बता पाएंगे कि उनके पास उनके सांसद का निजी मोबाइल नंबर है या नहीं।
दूसरे, मुझे लगता है कि जिस कॉन्फिडेंस से सामने वाले ने अपना नाम बताया था, “भईया सर्वेश बोल रहे हैं”, निश्चित ही कोई जानने वाला या खास कार्यकर्ता ही रहा होगा, जिसने सांसद पर अपना हक समझ कर कॉल किया होगा। और बहुत जल्दी उसे सांसद ने याद दिला दिया कि वो सिर्फ “जनता” है। जैसा कि फोन करने वाले ने बाद में खुद कहा की “जनता की आप नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा”।
ये नेता लोग जो सरकारी गाड़ियों में सुरक्षा दस्तों के बीच हो कर खुद को खुदा ओर जनता को कीड़ा मकोड़ा समझते हैं, ये किसके नौकर हैं? ये कथित वीआईपी कल्चर, हमारी कमजोरी, हमारे नार्मदगी और हमारी शरीफपने की पैदाइश है। इनके ग्लैमर से अभिभूत होकर हम ही इन्हें “खुदा” होने की गलतफहमी देते हैं। वरना इनकी औकात वास्तव में सिर्फ हमारे नौकर की ही है।
हम लोग रोजी रोटी कमाने में व्यस्त थे,इसलिए हमने कुछ नौकर रखे, जो देश को सही तरीके से चलाएं। नौकरी अच्छी है,इसलिए कई लोग आते हैं, हमारे दरवाजे की हमें अपना नौकर रख लो, हम उनमें से किसी एक को चुनते हैं कि जा ऐश कर,तुझे 5-साल की संविदा पर नियुक्ति दी।
दिक्कत ये हुई की हम अपनी मालिकी ही भूल गए। हमारा नौकर, जो हमारे दिए पैसे से अपना घर चलाता है, हम उसके ही वैभव प्रदर्शन से अभिभूत हो गए। उसकी बड़ी-बड़ी कोठियों, लंबी-लंबी गाड़ियों से हमारी आंखे चुंधिया गईं। और हमारे अंदर का मालिक, कुंठाग्रस्त और हीनभावना का शिकार होकर अपने ही नोकरों को अपना मालिक मानने लगा।
पर क्या संभव है कि एक 50 हजार मासिक वेतन पाने वाला कर्मचारी 50-50 करोड़ के बंगले में रहे, 5-5 करोड़ की गाड़ियों में चले, जबरदस्त भ्रष्टाचार करे और अपने मालिक को ही घुड़की दे।