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कितनी भारतीय हैं कमला हैरिस

अब हरेक भारतीय को मालूम चल चुका है कि कमला हैरिस कौन है? उनका भारत से किस तरह का रिश्ता है और अमेरिका के आगामी चुनाव में वे किस पद के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवार हैं। दरअसल कमला हैरिस बन भी सकती हैं अमेरिका की उपराष्ट्रपति। उन्हें डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपना उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है। कमला का परिवार मूलतः भारत के राज्य तमिलनाडू से है और उनकी मां श्यामला गोपालन ने दिल्ली के लेडी इरविन कॉलेज से ही ग्रेजुएशन किया था।

देखिए भारतवंशी तो सात समंदर पार शिखर पदों को हासिल कर ही रहे हैं। इसका श्रीगणेश साल 1961 में छेदी जगन ने कर दिया था, जब वे कैरिबियाई टापू देश गुयाना के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए थे। उनके बाद भारत के बाहर लघु भारत कहे जाने वाले मारीशस में शिव सागर रामगुलाम और अनिरुद्ध जगन्नाथ और उनके पुत्रों से लेकर फीजी में महेन्द्र चौधरी, त्रिनिदाद और टोबेगो में बासुदेव पांडे,सूरीनाम में चंद्रिका प्रसाद संतोखी वगैरह राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री तो बनते रहे हैं।

इन देशों में भारतवंशियों का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनना इस लिहाज से तो समझ आता है,क्योंकि इनमें भारतवंशियों की आबादी 40-50 फीसद से भी ज्यादा है। पर भारतवंशी रंगानंदा सिंगापुर जैसे देश के भी राष्ट्रपति बन रहे हैं। सिंगापुर में चीनी लगभग 76 फीसद हैं। फिऱ मलय भी अच्छी संख्या में हैं। जिधर भारतीय 10-12 फीसद हैं, उन देशों में भी अपनी योग्यता के बल पर भारतवंशी राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन रहे हैं।

यानी भारतवंशी मात्र उन्हीं देशों में अबतक राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री नहीं बने या बन रहे है जहाँ इनकी तादाद काफी है। भारतवंशियों का तो सियासत करने में कोई सानी ही नहीं है। ये देश से बाहर जाने पर भी सियासत के मैदान में मौका मिलते ही कूद पड़ते हैं। वहां पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ही देते हैं। संसद का चुनाव कनाडा का हो या फिर ब्रिटेन का, हिन्दुस्तानी वहां पर हमेशा मौजूद ही रहते हैं। उन्हें मात्र वोटर बने रहना ही मंजूर नहीं है। वे चुनाव भी लड़ते हैं। जीत-हार भी उनके लिए अहम नहीं होती।

ब्रिटेन की संसद में कितने भारतवंशी

कनाड़ा की पार्लियामेंट के लिए हुए पिछले आम चुनाव में भारतीय मूल के 19 उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी, जो अपने आप में एक रिकॉर्ड था। उस चुनाव में लिबरल पार्टी ने सत्तारूढ़ कंजरवेटिव पार्टी को पराजित किया है। दोनों ही दलों से भारतीय चुनाव के मैदान में थे। लिबरल पार्टी की ओर से भारतीय मूल के 15 लोगों ने जीत दर्ज की है। यहां के 338 सदस्यीय सदन में कंजरवेटिव पार्टी की ओर से भी भारतीय मूल के तीन सदस्य पहुंचे हैं। न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी की तरफ से भी भारतीय मूल का एक उम्मीदवार विजयी हुआ है। यानि भारतवंशी सभी दलों में सक्रिय रूप से शामिल हैं।

दो दर्जन देशों की संसद में भारतीय

दरअसल अब करीब दो दर्जन देशों में भारतवंशी सियासत कर रहे हैं। वहां की संसद तक पहुंच रहे हैं। देखा जाए तो हम हिन्दुस्तानी सात समंदर पार मात्र कमाने-खाने के लिए ही नहीं जाते। वहां पर जाकर हिन्दुस्तानी सत्ता पर काबिज होने की भी चेष्टा करते हैं। अगर यह बात न होती तो लगभग 22 देशों की पार्लियामेंट में 182 भारतवंशी सांसद न होते। वे बढ़-चढ़कर चुनावी गतिविधियों में भी भाग लेते हैं।

ब्रिटेन के पिछले आम चुनाव में भारतीय मूल के रिकॉर्ड 10 सांसद चुने गये हैं, जिनमे इंफोसिस के सह संस्थापक नारायण मूर्ति के दामाद ऋषि सुनाक भी शामिल हैं। वर्ष 2010 में हुए चुनाव में भारतीय मूल के आठ उम्मीदवारों की जीत हुई थी। भारतीय मूल के इन सांसदों में लीसेस्टर पूर्व से निर्वाचित कीथ वाज (लेबर पार्टी), विट्हम से प्रीति पटेल (कंजरवेटिव पार्टी) और नारायण मूर्ति के दामाद ऋषि सुनाक (कंजरवेटिव पार्टी) भी शामिल हैं।

इनके अलावा भारतीय मूल के विजयी उम्मीदवारों में ईलिग साउथहॉल से वीरेंद्र शर्मा (लेबर पार्टी), वालसाल साउथ सीट से वैलेरी वाज (लेबर पार्टी), रीडिग वेस्ट सीट से आलोक शर्मा (कंजरवेटिव पार्टी), कैंब्रिजशायर उत्तर-पूर्व सीट से शैलेष वारा (कंजरवेटिव पार्टी), फेयरहैम सीट से सुएला फर्नांडिस (कंजरवेटिव पार्टी), दक्षिण-पूर्व लंदन सीट से सीमा मल्होत्रा (लेबर पार्टी) और विगन सीट से लीसा नैंडी (लेबर पार्टी) ब्रिटिश सांसद हैं।

किसके साथ रखें भारतवंशी निष्ठा

इस बीच, यह भी देखने में आ रहा है कि हम भारतीय दुनिया के किसी कोने में रहने वाले भारतवंशियों को अपना बताने लगते हैं। भारतीयों को समझना होगा कि दुनिया के कोने-कोने में बसे करीब ढ़ाई करोड़ हिन्दुस्तानियों के लिए अब पहले हित तो उनके वे देश हैं, जहां वे जाकर बस गए हैं। यही उचित भी है। उनका भारत के प्रति प्रेम और स्नेह का भाव तो सदैव रहेगा ही। इससे अधिक कुछ नहीं।

यहां तक सब ठीक है। पर इस बात को भी ध्यान में रखा जाए कि कमला हैरिस अब तो पूरी तरह से अमेरिकी नागरिक हो चुकी हैं। उनके लिए अमेरिकी हित ही सर्वोपरि हैं। उनका भारत से ज्यादा से ज्यादा भावनात्मक संबंध ही तो हो सकता है। वैसे भी उनके पिता तो अफ्रीकी मूल के अमेरिकी थे, माताजी जरूर तमिलनाडू की भारतीय थीं जो दिल्ली में पढ़ी-लिखी थीं।

कभी-कभी अन्य देशों में बसे कुछ भारतवंशी अपने आचरण से स्थानीय लोगों को नाराज भी करते हैं। आप जानते हैं कि इंग्लैंड, न्यूजीलैंड, आस्ट्रेलिया और साउथ अफ्रीका में जब भारतीय क्रिकेट टीम खेलने जाती है तब वहां बसे भारतवंशी टीम इंडिया के हक में चीयर कर रहे होते हैं। पिछले साल भारत-इंगलैंड के बीच 30 जून को बर्मिघम में खेले गए आईसीसी क्रिकेट वर्ल्ड कप के महत्वपूर्ण मैच के दौरान स्टेडियम में भारतीय फैन्स तिरंगें लेकर आए हुए थे। टीम इंडिया की जर्सी को पहने ये भारतीय जब तक मैदान में होते है, उस दौरान ये ढोल बजाने से लेकर लगातार नारेबाजी करते रहते हैं।

जिम्बाव्वे और केन्या जैसे देशों में भी टीम इंडिया को मैदान के भीतर खासी संख्या में अपने चाहने वाले मिल ही जाते हैं। इन दोनों देशों में टीम इंडिया के पक्ष में माहौल बनाने वाले दर्शक भारतवंशी ही होते हैं। इनमें अधितकर गुजराती और कुछ सिख भी रहते हैं। अफ्रीकी देशों में गुजराती समाज बड़ी तादाद में कारोबार के सिलसिले में लम्बे समय से जा रहे हैं। इनके हाथों में प्राय: तिरंगा तो नहीं होता पर भारत इनको कहीं न कहीं भावनात्मक स्तर पर जोड़ता तो है।

ये नारे भी नहीं लगाते,पर मैदान में भारतीय उपलब्धि पर इनके चेहरे तो खिल ही जाते हैं। पर वेस्ट इंडीज में भारतवंशियों के इस तरह के आचरण की एक बार महान बल्लेबाज विव रिचर्ड्स ने भर्त्सना तक की थी। क्रिकेट कमेंटेटर डा0 रवि चतुर्वेदी बता रहे थे कि रिचर्ड्स ने कहा था कि गुयाना और त्रिनिडाड में बसे भारतवंशियों की वेस्ट इंडीज के खिलाफ टेस्ट मैच के दौरान निष्ठा भारत के साथ होती है।

तो भारतवंशियों को, जहां वे बसे हैं, बहुत समझदारी से रहना होगा। उन्हें देखना होगा कि उनके किसी कृत्य के कारण भारत पर कोई उंगुली न उठाए। मुझे इस सन्दर्भ में मारीशस के गाँधी चचा राम गुलाम (सर डॉ शिवसागर रामगुलाम) की एक बात याद आती है। एक बार जब मैं मारीशस में था तब चचा रामगुलाम ने जो उस वक्त राष्ट्रपति थे, भोजन के लिये राष्ट्रपति भवन आमंत्रित किया। बातचीत के क्रम में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा, “यह सही है कि हमारे पूर्वज भारत से आये, लेकिन अब हमारी मातृभूमि मारिस (मारीशस) ही है। यहीं का हित हमारा हित है। लेकिन, भारत को तो हम अपने पुरखों का देश “पुण्यभूमि” मानते हैं और सदा मानते ही रहेंगें।”

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