साइबर संवाद

त्यौहार बनाम पर्यावरण संरक्षण

ताजा मामले में दिल्ली में बढ़ते प्रदूषण के मद्देनजर उच्चतम न्यायालय द्वारा दीवाली के अवसर पर दिल्ली राजधानी क्षेत्र में पटाखों की बिक्री के अस्थाई प्रतिबंध का फैसला सुनाया गया है। जाहिर है केवल धर्म के ठेकेदार या पटाखा व्यापारी ही नहीं बल्कि सत्ताधारी भारतीय जानता पार्टी का संरक्षक व मार्गदर्शक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भी इस अदालती फैसले के विरोध में खड़ा हो गया है…..

निर्मला रानी

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कहने को तो हमारे देश के नीति निर्माता अथवा राजनैतिक लोग अक्सर यह कहते सुनाई देंगे कि वे भारतीय संविधान,माननीय न्यायालय तथा अदालती कानूनों अथवा आदेशों का पूरा सम्मान करते हैं तथा उसे स्वीकार करते हैं। परंतु जब कभी धर्म अथवा आस्था से जुड़े किसी विषय पर यही अदालत अपना कोई आदेश अथवा निर्देश जारी करती है तो कानून व अदालत के सम्मान की दुहाई देने वाले यही लोग अदालती फैसलों पर अपने तेवर बदलते दिखाई देने लग जाते हैं।

यहां तक कि कई बार अदालतों को भी अपने फैसलों अथवा निर्देशों की आलोचना सुनने के बाद अपनी सफाई में भी कुछ न कुछ कहना पड़ा है। सवाल यह है कि क्या अदालतें जानबूझ कर हमारी धार्मिक परंपराओं या रीति-रिवाजों पर समय-समय पर किसी न किसी बहाने से प्रहार करती रहती हैं या फिर ऐसा करना अंतर्राष्ट्रीय मापदंडों के अनुसार होता है? या वास्तव में भूसंरक्षण अथवा पर्यावरण संरक्षण के पक्ष में ऐसा करना वाकई जरूरी है?

और यदि ऐसा है भी तो क्या यही न्यायालय सभी धर्मों व समुदायों से जुड़े त्यौहारों को समान नजरिए से देखते हुए सबके लिए एक जैसे निर्देश अथवा प्रतिबंध जारी करती है? इस संदर्भ में एक बात और काबिलेगौर है कि कहीं धर्म एवं संप्रदाय की राजनीति करने वाले लोग स्वयं को जनता की नजरों में धार्मिक अथवा अपनी सांस्कृतिक धरोहर का रखवाला जताने के लिए तथा इसी बहाने आम लोगों के मध्य अपनी लोकप्रियता हासिल करने के लिए तो ऐसे अदालती फैसलों का विरोध नहीं करते?

पिछले दिनों भोपाल में संघ की एक बैठक में इस विषय पर यह तो कहा गया कि संघ पर्यावरण की सुरक्षा का पक्षधर है परंतु साथ ही यह भी कहा गया कि ‘दीवाली आनंद का त्यौहार है। कल को कुछ लोग यह कहने लगें कि दीपक जलाने से भी पर्यावरण पर बुरा असर पड़ता है तो क्या उनपर भी बैन लगा दिया जाएगा? संघ ने कहा कि दुष्परिणामों पर संकेत किया जाए परंतु सभी पटाखे प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। पर्यावरण की रक्षा हो रोक लगनी चाहिए परंतु इसे लेकर संतुलित विचार भी होना चाहिए।’

यहां संघ द्वारा संतुलित विचार कहने का तात्पर्य यही है कि केवल हिंदू धर्म के त्यौहारों को ही निशाना नहीं बनाया जाना चाहिए। दिल्ली में पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध को लेकर और भी कई तर्क ऐसे दिए जा रहे हैं जिन्हें नजरअंदाज भी नहीं किया जा सकता। उदाहरण के तौर पर दीपावली भारतवर्ष के उत्तरी क्षेत्र में अथवा विश्व के उन देशों में जहां हिंदू समुदाय के लोग अच्छी संख्या में रहते हैं वहीं मनाई जाती है। परंतु नववर्ष का उत्सव तो संभवतरू दुनिया का शायद ही कोई देश ऐसा हो जहां न मनाया जाता हो।

यहां तक कि भारतवर्ष में जो लोग दीपावली भी नहीं मनाते अर्थात् दक्षिण भारत में भी और हिंदू धर्म के अतिरिक्त सभी धर्मों के लोग भी नववर्ष के जश्र को सामूहिक रूप से मनाते हैं। इस अवसर पर पूरे विश्व में न केवल आतिशबाजियां छोड़ी जाती हैं बल्कि आतिशबाजियों की विश्वस्तरीय प्रतिस्पर्धा भी होती है। और पर्यावरण के यही रखवाले नववर्ष के विश्व स्तर के उत्सवों में आतिशबाजियों के भव्य एवं रंगारंग प्रदर्शन की सराहना करते हुए देखे जाते हैं। स्वयं को पर्यावरण का सबसे बड़ा रखवाला बताने वाले देशों में तो नववर्ष पर सबसे अधिक आतिबाजियां इस्तेमाल की जाती हैं। परंतु आज तक दुनिया के किसी देश ने नववर्ष को पटाखा या आतिशबाजी रहित मनाने का न तो सुझाव दिया न ही इसकी अपील की न ही इस विषय पर किसी अदालत का कोई फैसला सुनाई दिया। आखिर ऐसा क्यों?

कमोबेश यही स्थिति बकरीद के अवसर पर शाकाहारी खानपान के पक्षधरों द्वारा पैदा की जाती है। मुस्लिम समुदाय में कुर्बानी के नाम पर अपनी धार्मिक परंपराओं व रीति-रिवाजों का अनुसरण करते हुए अपने-अपने देशों व क्षेत्रों के अनुसार किसी न किसी हलाल जानवर की कुर्बानी दी जाती है। इसका विरोध करने वाले लोग कभी पर्यावरण के बचाव के नाम पर तो कभी जानवरों के साथ होने वाली निर्दयता के नाम पर इस परंपरा का विरोध करते सुनाई देते हैं।

यहां भी मुस्लिम समाज उसी अंदाज में यही सोचता है कि उसके धार्मिक त्यौहारों व परंपराओं को जानबूझ कर निशाना बनाया जाता है। जाहिर है यहां कुर्बानी के पक्षधर मुसलमान भी यही सवाल करते हैं कि पूरे विश्व में प्रतिदिन अनगिनत पशु काटे जाते हैं तथा धार्मिक परंपराओं के नाम पर भारत व नेपाल सहित दुनिया के कई देशों में पशुओं की बलि चढ़ाने की परंपरा है। यहां तक कि नेपाल में तो प्रत्येक वर्ष एक ही दिन में लाखों भैंसें बड़ी ही निर्दयता के साथ काटी जाती हैं। परंतु सिर्फ बकरीद के त्यौहार में कुर्बानी की परंपरा का विरोध करने वालों को केवल इसी दिन जीव हत्या व पर्यावरण संरक्षण सुझाई देता है?

अब जरा इन उदाहरणों से थोड़ा अलग हटकर तमिलनाडु के प्रसिद्ध जलीकट्टू त्यौहार पर नजर डालते हैं। बताया जाता है कि इस त्यौहार का इतिहास 400-100 वर्ष ईसा पूर्व का है। यह त्यौहार किसी धर्म अथवा जाति का न होकर यह समूचे तमिलनाडु की संस्कृति का प्रतीक माना जाता है। इसमें पुलिकुल्लम अथवा कांगयाम नस्ल के सांड़ को लाखों लोगों की भीड़ के मध्य छोड़ा जाता है और उसी भीड़ को चीरता हुआ वह सांड़ अनियंत्रित होकर भागता है।

उसके पीछे अनेक युवक दौड़ते हैं तथा उसकी पूंछ पकडकर उसके साथ दौडने कीे कोशिश करते हैं और पीछे की ओर से दौड़ती हुई स्थिति में उसकी पीठ पर सवार हो कर उसकी सींग पर अपना विशेष झंडा अथवा निशान लपेटने की कोशिश करते हैं। इस प्रयास में कई लोग बुरी तरह घायल भी हो जाते हैं। इस परंपरा को निभाने के दौरान कई लोगों की मौत भी हो चुकी है।

सर्वोच्च न्यायालय ने जब इस अमानवीय सी लगने वाली परंपरा पर रोक लगाने संबंधी आदेश जारी किए उस समय पूरा तमिलनाडु राज्य सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के विरुद्ध सडकों पर उतर आया और अदालती फैसले के बावजूद इस परंपरा का पालन करते हुए जलीक ट्टू का पर्व मनाया। इस घटना से हमें यह साफ संदेश मिलता है कि हम समय के लिहाज से भले ही स्वयं को कितना ही आगे निकल चुके क्यों न महसूस करते हों परंतु हमारी परंपराएं, हमारे रीति-रिवाज हमें बड़ी ही मजबूती के साथ अपनी रूढ़ियों में जकड़े हुए हैं।

यदि बकरीद पर पशुओं की कुर्बानी बंद करने की बात हो तो दूसरे लोगों द्वारा बलि दिए जाने का तर्क,दीपावली पर प्रदूषण न फैलाने के मद्देनजर पटाखों की बिक्री पर प्रतिबंध तो नए वर्ष पर क्यों नहीं, मंदिर में लाऊडस्पीकर के शोर-शराबे की आवाज उठाई जाए तो मस्जिद व गुरुद्वारे में लाऊडस्पीकर पर प्रतिबंध क्यों नहीं? गोया जलवायु, पर्यावरण अथवा पशु संरक्षण या ध्वनि प्रदूषण को लेकर जो भी सुधार संबंधी कदम सरकार अथवा न्यायालय द्वारा उठाए जाते हैं उसे आज की लोक लुभावनी राजनीति के दौर में फौरन ही धर्म अथवा संप्रदाय का जामा पहना दिया जाता है। इससे साफ जाहिर है कि इस प्रकार की राजनीति करने वालों को अपनी परंपराएं व रीति-रिवाज अधिक प्रिय हैं न कि पर्यावरण की रक्षा,जलवायु संरक्षण अथवा आम लोगों की सेहत।

लेखिका वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं।

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