डॉ0 बाबासाहेब आंबेडकर-1
सन 1984 के आसपास दापोली नगर परिषद की पाठशालाओं में अस्पृश्य विद्यार्थियों का प्रवेश निषेध था। उसके विरूद्ध अस्पृश्य पेंशनरों ने जिलाधीष के पास अर्जी पेश की। अपनी अर्जी में रामजी सूबेदार ने अपने रहने के लिए जगह की भी मांग की। जब उन्हें यह विश्वास हो गया कि दापोली में अपने बच्चों को पाठशाला में भर्ती कराना संभव नहीं है तो रामजी सूबेदार अपने परिवार सहित मुम्बई में आ बसे।
वहां से उन्होंने सेना के अधिकारियों को निवेदनपत्र भेजे और फलस्वरूप सातारा पी0डब्ल्यू0डी0 के दफ्तर में स्टोर कीपर की नौकरी प्राप्त की। सातारा की फौजी छावनी में बसे कोंकणवासी महार पेंशनर परिवारों के साथ रहते हुए भीम का बचपन बीता। उनकी प्राथमिक शिक्षा भी यहीं सम्पन्न हुई।
बचपन में भीम बहुत ही शरारती था। पास के वटवृक्ष पर रोज ही सूपारब्या खेल खेलने और झगड़े मोल लेने, मारपीट करने, उधम मचाने और बखेड़े खड़े करने के मारे, घर के लोगों को भी भीम के इन झमेलों को सुलझाते-सुलझाते मुसीबत हो जाती थी। जब भीम छह साल का हुआ तो मां की मृत्यू हो जाने से वह ममता की छत्रछाया से वंचित हो गया। उसके बाद अपंग बुआ मीराबाई ने ही भीम का लालन पालन किया।
सूबेदार रामजी कबीरपंथी थे। वे रोज अपने बच्चों से भजन, अभंग और दोहों का पाठ करवाते थे। सुबह उठकर वे बच्चों से उनका अभ्यास करवा लेते, इसलिए भीमराव के मन पर धार्मिक शिक्षा के संस्कारों की भी गहरी छाप पड़ी थी।
भीमराव के अस्पृश्य होते हुए भी उनके प्रति स्नेह रखने वाले कुछ अध्यापक भी थे। आंबेडकर उपनाम वाले एक ब्राह्म्ण शिक्षक ने उन्हें अपना कुल नाम ही नहीं दिया, बल्कि दोपहर की छुट्टी में वे भीमराव को खाने के लिए रोटियां भी दिया करते थे। सन 1927 के करीब जब आंबेडकर मास्टर उनसे मिलने आये तो बाबासाहब उन्हें देखकर गदगद हो गये, उनका गला भर आया। बाबासाहब ने बहुत दिनों तक मास्टर साहब का प्रेम से ओतप्रोत एक पत्र अपने पास संभाल कर रखा था।
सात नवम्बर 1900 के दिन भीमा को वहां के हाईस्कूल में अंग्रेजी की पहली कक्षा में प्रवेश मिला। एक दिन पाठशाला से छुट्टी पाने के लिए भीमा बरसात में भीगता हुआ स्कूल पहुंचा। पेंडसे नामक शिक्षक महोदय ने उसे अपने घर भिजवाकर पहनने के लिए लंगोटी और ओढ़ने के लिए अंगौछा दिलवाया और उसे कक्षा में बैठने का आदेश दिया। उस दिन भीमा ने अपने स्वभाव के हठीलेपन को तिलांजलि देने का निश्चय किया, परंतु उसके जीवन की घटनाओं से यह प्रतीत नहीं होता कि स्वभाव के हठीपन ने हार मान ली हो।