एजूकेशन नम्बरिंग पैटर्न को माथे मत लगाईये
सब कुछ दो ध्रुवों पर स्थित नही होता। ध्रुवों पर सिर्फ बर्फ होती है। हड्डियों को जमा देने वाली, जहां सहज रूप में मनुष्य का जीवन असम्भव है, प्रकृति ने वहां जीने के लिए अलग किस्म के प्राणियों की रचना की है वह मनुष्यों के लिए नही है।
100 % और 0 % यही दो ध्रुव हैं। यह दोनों सामान्य स्थितियां नही हैं। मानव समाज इनके बीच फलता फूलता है। न तो कक्षाओं में फेल होते जाना ही अच्छा है, ना ही topper बनने की सनक ही अच्छी है। यह दोनों अतियाँ ही हैं, जिनका गुणगान बच्चों/किशोरों के लिए पूर्णतः प्रतिकूल है।
सबसे खराब वह एजुकेशन सिस्टम है जो इस प्रक्रिया को प्रोत्साहित करता है। किसी जमाने मे उत्तर प्रदेश बोर्ड का परीक्षाफल 60 फीसदी छात्रों को फेल कर देता था। इतने कड़े मानदंड और आज 5 फीसदी भी फेल नही होते और 100 % पाने वाले स्टूडेंट्स भी चकित नही करते। यह सब अत्यंत भयावह संकेतक हैं। ज्यादा फेल करने से भी ज्यादा खतरनाक है, बच्चों को उनकी क्षमता से ज्यादा सिद्ध कर उनके भीतर एक खोखले आत्मविश्वास का निर्माण करना।
यह उन्हें जीवन मे आने वाले उतार चढ़ाव को handle करने में अक्षम बना कर पंगु बना देगा। यही प्रतिकूल परिस्थितियों में उन्हें अवसाद ग्रस्त करेगा, शिखर पे न रह सकने के दबाव में हमेशा दुखी रहेगा और उसमें से बहुतों को आत्महत्या के लिए प्रेरित करेगा। जैसा कि प्राय: देखा भी जाता है। सत्ता के लिए यह बेहद मुफीद स्थितियां हैं। वह लोगों को जिंदगी भर एक झूठी दिलासा देकर बहलाती रहेगी।
कभी तो सोचिए कि उदारीकरण के एक दशक बाद जब उसके विकार लोगों के सामने आने लगें तब से ही क्यों अचानक मार्किंग पैटर्न बदला? और वह भी इसी लुभावने तर्क से कि फेल होना और कम नम्बर लाना बच्चों को हतोत्साहित और कुंठित करता है। लिहाजा इसमें परिवर्तन करने की जरूरत है।
बाजार का गणित जब आपके जीवन का समीकरण सुलझाने में अक्षम होने लगता है, तो वह ऐसे ही मिथ्या आत्मविश्वास भर कर खुद को और मजबूत करता है। आपके हित के नाम पर जिस तर्क को लेकर आपके सामने नई योजना प्रस्तावित करता है और आप खुशी-खुशी उसका हिस्सा बनते जाते हैं। दरअसल यह उसके बड़े game plan का हिस्सा ही होता है जो वह आपको confidence में लेकर करता है।
जैसे सफाई होनी चाहिए कि नही, आप कहेंगे होनी चाहिए, तो दीजिये 2 % स्वछता cess, वह cess जाएगा बड़ी-बड़ी सफाई करने वाली कम्पनियों को। कभी पूछ लीजिएगा वो भगवा और पीले कपड़ों में लैस ट्रेन साफ करने के नाम पर आपसे फीडबैक भरवाने वालों से कि तुम्हे 4000 मिलता है कि 6000 और तुम जनरल डिब्बों में कितना जाते हो? फिर पता कीजियेगा कि रेलवे ने यह ठेका किस कम्पनी को किस कीमत पर दिया है। वह ठेकेदार का आदमी किसी भी तरह के सर्विस प्रोटेक्शन से महरूम है। तो यह है आपकी साफ सफाई की नैसर्गिक भावना का दोहन करके, जिसे न तब आपने समझा और ना अब। खैर, वर्तमान में तो आपको तो अभ्यास हो चुका है।
अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल का दाम all time low है और आपके बाजार में all time high, ऐसा क्यो? शुरू-शुरू में जब इसे लेकर थोडा शोर हुआ तो संकोचन ही व्हट्सएप यूनिवर्सिटी के फर्जी फॉर्वर्डस के जरिये आपको समझाया गया कि इतने बिलियन IMF का लोन, इतने अरब WORLD BANK का लोन चुकता करने में खर्च हो रहा है।
धीरे-धीरे ऐसे फॉर्वर्डस बन्द हो गए और आपकी जिज्ञासा भी। क्यो भला? कभी सोचा कि कब और क्यों, तेल के इस लुटेरे खेल को आप तार्किक तरीके से DECODE करने के बजाए इसे नियति मान कर स्वीकार करने लग गए।
पुनः मुद्दे पर आ जाइये, ठीक इसी तरह बच्चोँ और उनके अभिभावक लोगों के लिए दबाव और अकुंठ छात्र निर्माण के तर्क पर यह numbering pattern बदला, टॉपर्स को विज्ञापित कर-कर के उनके प्रति एक आकर्षण पैदा किया गया और धीरे धीरे, कोचिंग संस्थानों, counselling sessions, मोटिवेटर्स, प्राइवेट स्कूलों का एक जाल आपके आस-पास बनने लगा और आप कब उसमे फंस गए, न आपको पता लगा, ना ही आपके बच्चों को।
जैसे नाली में पड़े टुन्न शराबी को नाली की हकीकत नही मालूम चलती। हम सबको निरन्तर मदहोश करके ऐसे ही बजबजाते नरक में धकेल कर उससे अनुकूलित कर दिया गया है।
बिना इन कोचिंग संस्थानों के भी IIT में बच्चे आते थे, AIIMS के सारे डाक्टर कोचिंग के बगैर वाले ही है अभी, तब RAW TALENT मिलती थी जो ज्यादा बेहतर स्थिति में थी, अब TUTORED टैलेंट है। जो बहुत FRAGILE है क्योंकि वह प्रतिभारूपी फल नेचुरल रूप में नही पका है। वह कोटा के कोचिंग के कार्बाइड में जबरदस्ती पकाया गया है।
खैर, अब हालात यह है कि हमारे आपके अकेले-अकेले चेतन से कुछ नही होगा, हम सारे अभिभावकों को यह जागरूकता पैदा करनी होगी और सरकार को बताना होगा कि कोई भी ऐसा education system हमें नही चाहिए जो बच्चों के लिए ध्रुवों का निर्माण करे।
हम अपने बच्चों को बिल्कुल नियंत्रित वातावरण में गमलों में बड़ा नही करना चाहते। हम चाहते हैं हमारे बच्चे उस तरह बढ़ें, जैसे जंगल में बढ़ते है पेड़ …..
पंकज मिश्रा की वॉल से