बावड़ी में सात सौ सालों से नहीं गली है जामुन की लकड़ी
अगर जामुन (java plum) की मोटी लकड़ी का टुकडा पानी की टंकी में रख दें तो टंकी में शैवाल (Algae) या हरी काई (Green moss) नहीं जमती और पानी सड़ता नहीं। टंकी को लम्बे समय तक साफ़ नहीं करना पड़ता।
जामुन की एक खासियत है कि इसकी लकड़ी पानी में काफी समय तक सड़ती नही है। जामुन की इसी खूबी के कारण इसका इस्तेमाल नाव बनाने में बड़े पैमाने पर होता है। नाव की निचली सतह जो हमेशा पानी में रहती, है वह जामून की लकड़ी की बनी होती है।
गांव देहात में जब कुंए की खुदाई होती है तो, उसकी तलहटी में जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे जमोट कहते हैं। आजकल लोग जामुन का उपयोग घर बनाने में भी करने लगे हैं।
जामुन की छाल का उपयोग श्वसन, गलादर्द, रक्तशुद्धि और अल्सर में भी किया जाता है।
दिल्ली के महरौली स्थित निजामुद्दीन बावड़ी (Nizamuddin stepi) का हाल ही में जीर्णोद्धार हुआ है। 700 सालों के बाद भी गाद या अन्य अवरोधों की वजह से यहाँ पानी के सोते बंद नहीं हुए हैं। भारतीय पुरातत्व विभाग के प्रमुख के.एन. श्रीवास्तव के अनुसार इस बावड़ी की अनोखी बात यह है कि आज भी यहाँ लकड़ी की वो तख्ती साबुत है जिसके ऊपर यह बावड़ी बनी थी। श्रीवास्तव जी के अनुसार उत्तर भारत के अधिकतर कुँओं व बावड़ियों की तली में जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल आधार के रूप में किया जाता रहा है।
इस बावड़ी में भी जामुन की लकड़ी इस्तेमाल की गई थी, जो 700 साल बाद भी नहीं गली है। बावड़ी की सफाई करते समय बारीक से बारीक बातों का भी खयाल रखा गया। यहाँ तक कि सफाई के लिए पानी निकालते समय इस बात का खास खयाल रखा गया कि इसकी एक भी मछली न मरे। इस बावड़ी में 10 किलो से अधिक वजनी मछलियाँ भी मौजूद हैं।
इन सोतों का पानी अब भी काफी मीठा और शुद्ध है। इतना कि इसके संरक्षण के कार्य से जुड़े रतीश नंदा का कहना है कि इन सोतों का पानी आज भी इतना शुद्ध है कि इसे आप सीधे पी सकते हैं। स्थानीय लोगों का विश्वास है कि पेट के कई रोगों में यह पानी फायदा करता है।
पर्वतीय क्षेत्र में आटा पीसने की पनचक्की का उपयोग अत्यन्त प्राचीन है। पानी से चलने के कारण इसे “घट’ या “#घराट’ कहते हैं। घराट की गूलों से सिंचाई का कार्य भी होता है। यह एक प्रदूषण रहित परम्परागत प्रौद्योगिकी है। इसे जल संसाधन का एक प्राचीन एवं समुन्नत उपयोग कहा जा सकता है। आजकल बिजली या डीजल से चलने वाली चक्कियों के कारण कई घराट बंद हो गए हैं और कुछ बंद होने के कगार पर हैं।
पनचक्कियाँ प्राय: हमेशा बहते रहने वाली नदियों के तट पर बनाई जाती हैं। गूल द्वारा नदी से पानी लेकर उसे लकड़ी के पनाले में प्रवाहित किया जाता है, जिससे पानी में तेज प्रवाह उत्पन्न हो जाता है। इस प्रवाह के नीचे पंखेदार चक्र (फितौड़ा) रखकर उसके ऊपर चक्की के दो पाट रखे जाते हैं।
निचला चक्का भारी एवं स्थिर होता है। पंखे के चक्र का बीच का ऊपर उठा नुकीला भाग (बी) ऊपरी चक्के के खांचे में नीहित लोहे की खपच्ची (क्वेलार) में फँसाया जाता है। पानी के वेग से ज्यों ही पंखेदार चक्र घूमने लगता है, चक्की का ऊपरी चक्का घूमने लगता है। पनाले में प्रायः जामुन की लकड़ी का भी इस्तेमाल होता है। फितौडा भी जामुन की लकड़ी से बनाया जाता है।
जामुन की लकड़ी एक अच्छी दातुन भी है।
#जलसुंघा (ऐसे विशिष्ट प्रतिभा संपन्न व्यक्ति जो भूमिगत जल के श्रोत का पता लगाते हैं) भी पानी सूंघने के लिए जामुन की लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं।
From the Wall of Suresh Mg