एनालिसिस
साहूकारों और बैंकों की दुरभिसन्धि तो नहीं
जहॉंपर इनका ना तो प्रोवीडेन्ट फण्ड कटता है ना ही कोई इनश्योरेन्स की स्कीम इन्हें उपलब्ध होती है। ना ही किसी प्रकार की छुट्टी का भुगतान मिलता है। और ना ही कोई अन्य लाभ। केवल नो वर्क नो पे का सिद्धान्त ही यहां कठोरता से लागू होता है। आईआईआईएस के सर्वे के अनुसार 80 रुपये प्रतिदिन से कम पाने वालों में से जिन पॉंच लोगों ने कर्ज लिया उसमें से चार, सूदखोरों (साहूकारों) के चंगुल में जबरदस्त तरीके से फंसे हुए थे।
इन साहूकारों की ब्याज दरें दस प्रतिशत प्रतिमाह से पन्द्रह प्रतिशत प्रतिमाह के बीच होती हैं। वार्षिक आधार पर यदि गणना की जाये तो यह 150 प्रतिशत के नीचे नहीं बैठती हैं। 150 प्रतिशत प्रतिवर्ष कमाने के इस धन्धे में साहूकारों, पुलिसवालों और गॉव के प्रभावशाली व्यक्तियों एवं बैंकों का पूरा गिरोह सक्रिय रहता है।
ये व्यवस्था भारत की अच्छी खासी जनता को गुलाम बनाये हुए है। कईबार तो यहॉं तक देखा गया है कि सामाजिक दायित्वों के निर्वहन के लिए समाज के पंच जबरदस्ती कर्ज दिलाकर बिरादरी में भोज करवा देते हैं। और उसे वापस न कर पाने की स्थिति में उसकी जमीन और बहु-बेटी तक पर जबरन कब्जा कर लेते हैं।
महोदया दीक्षा देते हुए यह भी कहती हैं कि यह भिखारियों को बढ़ावा देने का मामला है। यह सीख इस स्तम्भकार ने डब्ल्यू.एस.जे. में देखी तो तरस आया इन पत्रकार महोदया पर कि अपनी काबिलियत दिखाने के लिए उन्होंने निर्धनता के सच में झांकने के बजाय,उसके दुर्भाग्य को बॉलीवुड के नंगेपन के बराबर समझ लिया।.…………….जारी
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